बुरहानपुर के धूलकोट क्षेत्र में, वन विभाग द्वारा 8,000 आदिवासी परिवारों के पट्टे रद्द करने का मुद्दा सामने आया है, जिससे वे अपनी जमीनों से बेदखल होने की कगार पर हैं। आदिवासी समुदाय ने इस फैसले के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया है और अपनी जान देने तक की चेतावनी दी है, क्योंकि वे 40 वर्षों से इन जमीनों पर खेती कर रहे हैं।
यह आयोजन आदिवासी अधिकारों को लेकर एक बड़ी भागीदारी के रूप में देखा जा रहा है।
धूलकोट, बुरहानपुर (मध्य प्रदेश) में एक आदिवासी सम्मेलन बुधवार, 18 जून 2025 को आयोजित किया गया। यह सम्मेलन हाल ही में निरस्त किए गए लगभग आठ हजार वनाधिकार दावों के विरोध में किया गया था।
इस सम्मेलन में मध्य प्रदेश विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष उमंग सिंघार, पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण यादव, पूर्व मंत्री कमलेश्वर पटेल सऔहित कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता और विधायक शामिल हुए।
बुरहानपुर के धूलकोट क्षेत्र में आदिवासियों की जमीनों से जुड़े कई मुद्दे सामने आए हैं,जिनमें मुख्य रूप से वन अधिकार पट्टों को निरस्त किया जाना और रोजगार के अभाव में पलायन शामिल हैं।
हाल ही में, बुरहानपुर जिले में 8,000 से अधिक वन अधिकार पट्टों को कथित तौर पर बिना उचित प्रक्रिया के खारिज कर दिया गया है, जिसमें आदिवासियों को कोई नोटिस, स्पष्टीकरण या अपील का अवसर नहीं दिया गया। इससे आदिवासियों में भारी रोष है। इस निर्णय के विरोध में 9 जून, 2025 को 15,000 से अधिक आदिवासी पुरुषों और महिलाओं ने एकजुट होकर प्रदर्शन किया। उनका आरोप है कि वन विभाग द्वारा अवैध रूप से बेदखली और धमकियां दी जा रही हैं। आदिवासियों ने राज्यपाल और मानवाधिकार आयोग से भी शिकायत करने की बात कही है।
* वन अधिकार पट्टों का निरस्तीकरण:
* प्रशासन ने उन किसानों के वन अधिकार पट्टों के दावों को खारिज कर दिया है, जो 45 वर्षों से वन भूमि पर खेती कर रहे थे।
* आदिवासी समुदायों का आरोप है कि वन अधिकार अधिनियम (FRA) और संवैधानिक प्रावधानों का घोर उल्लंघन किया जा रहा है।
* वन विभाग पर यह भी आरोप है कि वह 2022-23 के दौरान 10,000-15,000 एकड़ में बड़े पैमाने पर अवैध कटाई और लकड़ी की तस्करी में शामिल रहा है, और अब हजारों आदिवासी परिवारों को उनकी वैध जमीनों से बेदखल करने की कोशिश कर रहा है।
पलायन की समस्या:
धूलकोट क्षेत्र में रोजगार के साधनों की कमी के कारण आदिवासी परिवार दूसरे राज्यों में जाकर मजदूरी करने को मजबूर हैं।
कई गांव वीरान हो गए हैं, और उनमें केवल बुजुर्ग ही बचे हैं, क्योंकि युवा रोजगार की तलाश में महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, हैदराबाद, गुजरात आदि राज्यों में पलायन कर चुके हैं।
ग्रामीणों का कहना है कि उनके पास इतनी जमीन भी नहीं है कि पूरे परिवार का भरण-पोषण कर सकें, और खेती भी केवल बारिश पर निर्भर करती है।
पुनर्वास और मुआवजे का अभाव:
कुछ मामलों में, जैसे खारक बांध के निर्माण के कारण विस्थापित हुए 300 से अधिक आदिवासी परिवारों को, बांध निर्माण के कई साल बाद भी न तो उचित मुआवजा मिला है और न ही जमीन।
इन मुद्दों को लेकर आदिवासी समाज लगातार विरोध प्रदर्शन कर रहा है और अपने संवैधानिक तथा कानूनी अधिकारों की मांग कर रहा है। वे खारिज किए गए सभी दावों की फिर से जांच करने, ग्राम सभाओं को मामले वापस भेजने और अवैध बेदखली पर तत्काल रोक लगाने की मांग कर रहे हैं।
पिछले तीन वर्षों में वन विभाग और ग्रामीणों को कथित तौर पर अतिक्रमणकारियों द्वारा किए गए हमलों का सामना करना पड़ा है. 5 जुलाई, 2020 को घाघरला में पथराव की घटना सामने आई. इसके बाद 19 जुलाई और 7 अगस्त को अनियंत्रित घटनाएं हुईं.
इसके बाद 7 नवंबर को घाघरला में 350 प्रशासनिक कर्मचारियों को शामिल करते हुए एक अतिक्रमण विरोधी अभियान शुरू किया गया. उनमें से सत्रह लोग हिंसा में घायल हो गए, जिसमें हथियार छीनना भी शामिल था.2 जुलाई 2021 को असीरगढ़ ज़ोन के अंतर्गत दाहीनाला उत्तर में फॉरेस्ट गार्ड को अतिक्रमणकारियों के गुस्से का सामना करना पड़ा. कुछ महीने बाद 21 नवंबर को नेपानगर के अतिक्रमण स्थल चिड़ियापानी में रात के अंधेरे में एक आरोपी को गिरफ्तार करने गई पुलिस टीम पर हमला किया गया.सबसे हालिया घटना में 7 अप्रैल को 60 से अधिक आदिवासियों ने नेपानगर पुलिस स्टेशन पर हमला किया और तीन गिरफ्तार लोगों को हिरासत से छुड़ा लिया.जेएडीएस नेता माधुरी बेन ने कहा, “यह (पुलिस स्टेशन पर हमला) एक सुनियोजित साजिश है. घटना के बाद भी प्रशासन ने तेजी से कार्रवाई नहीं की. पहले उन्होंने कहा कि आरोपी जंगल में काफी अंदर चले गए हैं इसलिए हम उन तक नहीं पहुंच सकते. फिर उन्होंने ग्रामीणों के खिलाफ कार्रवाई शुरू की, यह तर्क देते हुए कि उन्होंने अतिक्रमणकारियों के साथ मिलीभगत की है.”
उन्होंने कहा कि जंगलों में रहने वाले सभी आदिवासी कई पीढ़ियों से यहां रह रहे हैं. उन्होंने दावा किया कि हाल के वर्षों में अंधाधुंध कटाई तेज़ हो गई है. उन्होंने आरोप लगाया, “प्रशासन का ध्यान आकर्षित करने के लिए हमने जो सर्वेक्षण किया था उसके मुताबिक अक्टूबर 2022 से अब तक लगभग 15 हज़ार हेक्टेयर जंगल नष्ट हो चुके हैं, जिसे बिल्कुल भी व्यावहारिक नहीं कहा जा सकता है. इसमें वन विभाग की भूमिका है.”वहीं आरोपों का खंडन करते हुए अनुपम शर्मा, जो पुलिस स्टेशन पर हमले के समय प्रभागीय वन अधिकारी थे, ने बताया कि उन्होंने जेएडीएस सदस्यों से उन लोगों के नाम बताने को कहा था जिनके बारे में उनका मानना है कि वे साजिश का हिस्सा थे और इसके सबूत भी दे हालांकि, उन्होंने हमें न तो कोई नाम दिया और न ही सबूत. तो यह स्पष्ट है कि आरोप निराधार हैं.15 हज़ार हेक्टेयर के कथित नुकसान पर अनुपम शर्मा ने कहा, ”जंगल उतना नहीं काटा गया है जितना वे बता रहे हैं लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि जंगल काटा गया है.”
इस मामले पर जेएडीएस के रुख के बारे में विस्तार से बताते हुए माधुरी बेन ने कहा, “हम नए अतिक्रमणकारियों का विरोध करते हैं जो न केवल जंगल को नष्ट करते हैं बल्कि स्थानीय आदिवासियों को भी परेशान करते हैं और वन कर्मचारियों पर हमले करते हैं. हमारा संगठन उन लोगों को साथ ले रहा है जो 2000 से पहले यहां बसे हैं. उनके पास दिखाने के लिए पुख्ता सबूत हैं क्योंकि विभाग द्वारा उनके खिलाफ पहले के दिनों में दायर किए गए मामले भी उनके यहां रहने की समयसीमा को साबित कर सकते हैं.”
जमीन पर अधिकार का दावा करने वालों में भील समाज के सदस्य मदन वास्कले भी शामिल हैं.उन्होंने अपील की, “जंगल हमारा मंदिर है, हमारी आजीविका का साधन है. जंगल से निकलने वाले महुआ, चारोली और तेंदूपत्ता से हमारी जीविका चलती है. हमारे मवेशी वन संसाधनों पर निर्भर हैं. अगर विभाग ने हमारी शिकायतों पर कार्रवाई की होती तो हजारों एकड़ जंगल जीवन से समृद्ध होता. ऐसे लोग हैं जो हरियाली को साफ करते हैं और वन कर्मचारियों पर हमला करते हैं. लेकिन हम कानून के दायरे में रहकर इसकी रक्षा करते हैं. बदले में हम सरकार से अपनी वाजिब जमीन की मांग कर रहे हैं.”
यह एक बेहद अजीबोग़रीब स्थिति है जब जंगल की ज़मीन पर आदिवासी बनाम आदिवासी की लड़ाई चल रही है. इस पूरे मामले में प्रशासन संजीदगी से काम करने की बजाए, इस मौके को आदिवासी अधिकार के लिए काम करने वाले एक संगठन के खिलाफ़ इस्तेमाल करने की फ़िराक़ में है
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